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Wednesday, December 19, 2012

कलाल-कलवार-कराल वैश्य

पिछड़ी  जातियों के संदर्भ में अक्सर कलाल शब्द सुनते आए हैं। कलार या कलाल मूलतः वैश्यों के उपवर्ग है जो जातिवादी समाज में विकास की दौड़ में लगातार पिछड़ते चले गए। अब इन्हें अन्य पिछड़ावर्ग में गिना जाता है। यह भी स्थापित सत्य है कि वैश्य समुदाय की पहचान किस जमाने में क्षत्रिय वर्ण में होती रही है। विभिन्न वैश्य समूदायों की उत्पत्ति के सूत्र क्षत्रियों से ही जुड़ते हैं।


कलाल शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत केकल्य या कल्प से मानी जाती है जिसका अर्थ होता है इच्छापूर्ति करना। व्यवहार में लाने योग्य, समर्थ आदि। व्यावहारिक तौर पर इसमें राशन सामग्री का भाव भी आता है। आप्टे के संस्कृत शब्दकोश में कल्पपालः का अर्थ शराब विक्रेता बताया गया है। इसी तरह कल्य शब्द का अर्थ भी रुचिकर, मंगलमय आदि है। इसमें भी भोज्य सामग्री का भाव है। कल्य से ही बना हैकलेवा जो हिन्दी में खूब प्रचलित है और सुबह के नाश्ते या ब्रेकफास्ट के अर्थ में इस्तेमाल होता है। कल्या का मतलब मादक शराब होता है। मदिरा के कई उपासकों का कलेवा कलाली पर ही होता है। कल्यपाल या कल्पपालमूलतः एक महत्वपूर्ण ओहदा होता था जिस पर तैनात व्यक्ति के जिम्मे सेना की रसद से जुड़ी हुई तमाम जिम्मेदारियां थीं। कल्यपाल यानी जो खाद्य आपूर्ति का काम करे। व्यापक रूप में खाद्य आपूर्ति यानी प्रजा के भरण पोषण का दायित्व राजा का भी होता है अतः प्रजापालक के रूप में कल्यपाल का अर्थ राजा भी होता है। कलाल वैश्यों से भी पहले क्षत्रिय थे इसके संदर्भ भी मिलते हैं। कल्यपाल राजवंश भी हुआ है जिन्होने कश्मीर में शासन किया।


शासन के लिए, खासतौर पर सेना के लिए रसद आपूर्ति के काम में मदिरा भी एक रसद की तरह ही उपभोग की जाती थी। कल्प का एक अन्य अर्थ है रोगी की चिकित्सा। जाहिर है इसमें पदार्थ का सार, आसवन करना, आसव निकालना आदि भाव भी शामिल हैं। गौरतलब है कि प्राचीन भैषज विज्ञान के अनुसार ये सारी विधियां ओधषि निर्माण से जुड़ी रही हैं। कलाल के वैश्य समुदाय संदर्भित अर्थ पर गौर करें तो जाहिर है कि रोगोपचार वैद्य का कार्य रहा है मगर ओषधि निर्माण का काम एक पृथक व्यवसाय रहा है जिसे वैश्य समुदाय करता रहा है। कल्यपाल एक राज्याश्रित पद होता था। प्राचीनकाल में भी मदिरा के गुण-दोषों के बारे में राज्य व्यवस्था सतर्क थी। कल्यपालका मतलब हुआ आसवन की गई सामग्री का अधिपति। शासन व समाज के उच्च तबके द्वार विलासिता के तौर पर उपभोग की जाने वाली मदिरा के निर्माण का काम इसी कल्यपाल के जिम्मे होता था। कल्यपाल का ही अपभ्रंश रूप होता है कलार या कलाल। कलाल समुदाय में जायसवाल वर्ग काफी सम्पन्न और शिक्षित रहा है। इनकी उद्यमशीलता वैश्यों सरीखी ही है। मदिरा के कारोबार पर हमेशा से राजकीय नियंत्रण रहा है। आज के दौर में हर राज्य में शराब विक्रेताओं के 

कल्य शब्द से बने कलाल या कलार से ही जन्मे कलारी या कलाली का किसी समय समाज में ऊंचा और विशिष्ट स्थान था।सिंडिकेट बने हुए हैं जिन पर कलाल समुदाय के लोग ही काबिज हैं। देश के अलग अलग इलाकों में इनके कई नाम भी प्रचलित हैं मसलन कलार, कलवार, दहरिया, जायसवाल, कनौजिया, आहलूवालिया, शिवहरे, वालिया,   कर्णवाल, सिकन्द,  आदि। पंजाब के आहलूवालिया जबर्दस्त लड़ाका क्षत्रिय हैं। बहादुरी में इनका सानी नहीं अविभाजित पंजाब के आहलू गांव से इनकी शुरूआत मानी जाती है। अवध का एक बड़ा इलाका किसी जमाने में कन्नौज कहलाता था। यहां से जितने भी समुदाय व्यवसाय-व्यापार के लिए अन्यत्र जा बसे उनके साथा कन्नौजिया शब्द भी जुड़ गया। कन्नौजिया शब्द में किसी जाति विशेष का आग्रह नहीं बल्कि स्थान विशेष का आग्रह अंतर्निहित है। कन्नौजिया उपनामधारी लोग हर वर्ग-समाज में मिल जाएंगे। शिवहरे नाम शिव से संबंधित है।


कल्य शब्द से बने कलाली से जहां ताड़ीखाने का रूप उभरता है वहीं राजस्थान की रजवाड़ी संस्कृति में यह शब्द विलास और श्रंगार के भावों को व्यक्त करता है। लोक गायन की एक शैली हीकलाली अथवा कलाळी कहलाती है। इस पर कई भावपूर्ण गीतलिखे गए हैं। शुद्ध रूप में इन्हें कलाळियां कहा जाता है। रजवाड़ी दौर में कलाळ अर्थात कलालों का रुतबा था। उनकी मदिरा प्रसिद्ध थी। उनकी अपनी भट्टियां होती थीं।लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने रजवाड़ी गीत की भूमिका में लिखा है कि समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति इनके घर जाकर मदिरापान करते थे। इन कलालों की महिलाएं मेहमानों की आवभगत करतीं और मनुहार से मदिरा पिलाते हुए भी अपनी प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान के बनाए रखती थीं। वे इस संबंध में सजन और पातुड़ी कलाळन का उल्लेख करती हैं। मध्यकालीन सूफी-संतों ने भी ईश्वर भक्ति के संदर्भ में कलाली, भट्टी जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। कबीरदास कहते हैं-कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई। सिर सौपे सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाई।। यानी रामरस का स्वाद अगर लेना है तो सर्वस्व त्यागना होगा। अब यह कैसे संभव है कि जिस सिर अर्थात मुंह से मदिरा का स्वाद लेना है, वही सिर कलाल को मदिरा की एवज में सौप दिया जाए !!

कल्य शब्द से बने कलाल या कलार से ही जन्मे हैं कलारी या कलाली का किसी समय समाज में ऊंचा और विशिष्ट स्थान था। आज कलाली देशी दारू की दुकानों या ठेकों के रूप में आमतौर पर व्यवहृत हैं। मराठी, गुजराती, पंजाबी जैसी भाषाओं में भी यही रूप प्रयोग में आते हैं जिससे सिद्ध है कि कल्यपाल की राज्याश्रित व्यवस्था का विस्तार समूचे भारत में था। शराब की भट्टियां लगाने का काम खटीक करते थे और विक्रय की जिम्मेदारी कलाल समुदाय की थी। डॉ विगो खोबरेकर लिखित मराठा कालखंड-2 में शिवाजी के राज्य में नियंत्रित मदिरा व्यवसाय का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि ब्राह्मणों के लिए शराबनोशी प्रतिबंधित थी। सैनिकों के लिए भी शराब की मनाही थी।

साभार :

श्री अजित वडनेरकर, http://shabdavali.blogspot.in/2009/02/blog-post_27.html

5 comments:

  1. अति उत्तम जानकारी

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  2. विवाह संबंधित सम्पूर्ण जानकारी भी प्रकाशित किया जाय

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  3. This cast is not consider backward for all states like they come general category in haryana, Punjab, Himachal, delhi, jamu & kashmir

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  4. Is caste ko bahaut Jagha Backward nahi maana Hein bahaut se states Mein aur kalals ko Jabardasti apni politics ke lie jayaswalo ne Obc mein dalwaya tha nahi to hame to jrurat bhi nahi thi

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